भारत के बारे में कहते हैं कि यह सोने की चिड़िया था। बहुत से लोगों को इसका मलाल है कि उस चिड़िया को अंग्रेज नोच ले गए। लेकिन हकीकत कुछ और है। भारत आज भी सोने की बत्तख है और यह एक बत्तख की तरह ही बदसूरत है। सोना भारत की किस्मत नहीं, ट्रैजिडी है।
इन आंकड़ों पर गौर कीजिए। भारत में 20 हजार टन सोना घरों में या लॉकर्स में कैद है। इसकी कीमत लगभग 27 लाख करोड़ रुपए है, जो कि भारत की जीडीपी के 60 पर्सेंट के बराबर है। अकेले पिछले साल 933 टन सोना भारत आया। इतने सारे सोने का हम क्या इस्तेमाल करते हैं? सजावट या होर्डिंग के अलावा कुछ नहीं। कुल गोल्ड स्टॉक का महज 10.5 ही आरबीआई के खजाने का हिस्सा है। अगर हम सोना नहीं खरीद रहे होते और इस पैसे को दूसरे असेट्स या इस्तेमाल पर खर्च कर रहे होते, तो क्या होता? देश की आर्थिक गतिविधियों पर 27 लाख करोड़ का सालाना इन्वेस्टमेंट बढ़ जाता। ऐनुअल कैपिटल फॉर्मेशन(कारखाने, मशीनरी और इंफ्रास्ट्रक्चर) पर जितना पैसा लगता है, उससे दोगुना हम सोने पर खर्च कर देते हैं। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर ऐसा नहीं होता तो जीडीपी की रफ्तार कई पॉइंट ऊपर होती। मुमकिन है चीन से आगे या उसके बराबर। गोल्ड के अलावा जिस भी मद में हम खर्च, इन्वेस्टमेंट या सेविंग करते हैं, वह किसी-न-किसी प्रोडक्टिव काम में जाता है। और हैरानी की बात यह है कि किसी भी घरेलू बचत के मुकाबले सोने पर हमारा खर्च छह गुने से भी ज्यादा है।
भारत दुनिया में गोल्ड का इंपोर्ट करने वाला सबसे बड़ा देश है। हमारी इंपोर्ट लिस्ट में तेल और मशीनरी के बाद इसका तीसरा नंबर है। पिछले साल हमने 33.9 अरब डॉलर का गोल्ड इंपोर्ट किया। इस साल यह 58 अरब डॉलर हो सकता है। यह हमारे कुल इंपोर्ट बिल का 12 पर्सेंट है। अब यह देखिए कि 2010-11 में हमने 479 अरब डॉलर का इंपोर्ट किया और हम ट्रेड डेफिसिट में हैं। अपने एक्सपोर्ट के मुकाबले हमारा इंपोर्ट 175 अरब डॉलर ज्यादा है। यह एक बहुत बड़ा आंकड़ा है, जिसने सरकार को होश उड़ा रखे हैं। आज भारत का एक बड़ा संकट यह डेफिसिट है। सोचिए, अगर हम दुनिया भर का सोना खरीद कर अपने घर नहीं भर रहे होते, तो यह डेफिसिट नहीं होता, भारत की फाइनैंशल हालत बेहद मजबूत होती।
इस बजट में जब गोल्ड पर ड्यूटी बढ़ाई गई, तो यही सब बातें सरकार के दिमाग में थीं। इस सख्ती का कोई असर गोल्ड से हमारे प्यार पर होगा, इसकी उम्मीद करना बेकार है। सोना महंगा हो जाएगा और वह जितना महंगा होता जाता है, उतना ही उसकी कद्र हमारे दिल में बढ़ती जाती है।
लेकिन चीजें एकदम साफ हैं। दुनिया के सबसे अमीर देश सोना नहीं खरीदते। सोने का सबसे बड़ा खरीदार दुनिया का एक सबसे गरीब देश भारत है। सोना भारत की गरीबी की एक बड़ी वजह है, क्योंकि यह उस पूंजी को हमेशा के लिए एक ऐसे असेट में दफन कर देता है, जिससे तरक्की के लाखों काम हो सकते थे। कोई भी गरीब देश ऐसी लग्ज़री अफोर्ड नहीं कर सकता। तब तो कतई नहीं, जब उसके चलते उसका विदेशी व्यापार खतरे में पड़ रहा हो और फॉरेन एक्सचेंज का खजाना खाली हुआ जा रहा हो।
अगर हम सोने से इतना प्यार नहीं करते, तो भारत की दशा कुछ और ही होती। कुछ इकनॉमिस्ट इसके लिए भारत के पिछड़ेपन को कसूरवार मानते हैं। उनका कहना है कि जब लोगों के पास बचत से दूसरे तरीके नहीं होते, तो वे सोने जैसी चीजें ही खरीदते हैं। सोने को हमेशा से बुरे वक्त में सहारे की तरह देखा गया है। लेकिन मेरा सवाल यह है कि दुनिया भर के दूसरे पिछड़े, गरीब और असुरक्षित लोगों के मुकाबले हम भारतीयों को ही क्यों इतना डर सताता है कि सोना खरीदते जाते हैं? क्या हम सबसे ज्यादा डरपोक हैं या हमें अपनी पूंजी को दांव पर लगाकर आगे बढ़ना जमता ही नहीं था? क्या भारत का भाग्यवादी मिजाज इसके पीछे था, जो आज भी बहुत नहीं बदला है?
सोने की चाहत हर सोसायटी में रही है। सोने के लिए दुनिया भर में लड़ाइयां हुई हैं, लेकिन सोने से ऐसा जानलेवा लगाव और कहीं नहीं दिखता। क्या कोई तरीका है, जो हमारी तबीयत को सुधार सकता है?
जैसे-जैसे इकॉनमी के ज्यादा डायनैमिक, ज्यादा खर्चीले, इन्वेस्टमेंट के ज्यादा मौकों और फायदे के नए हिसाब वाले बदलाव पर यकीन बढ़ेगा, सोने का सुरूर कमजोर पड़ेगा। ऐसा होना चाहिए, लेकिन परंपरा से प्यार करने वाले इस देश में बचत की पुरानी आदतें भी पुरानी पीढ़ी से नई में शिफ्ट हो रही हैं। सोना जिस तरह हमारी कल्चर पर हावी है, उसे देखते हुए ड्रमैटिक बदलाव मुश्किल है, जब तक कि ओल्डर जेनरेशन ही अपने खयालात बदलने न लगे।
इन हालात में मैं उन गोल्ड लोन कंपनियों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, जिन्होंने केरल से आकर हमें सिखाया कि सोने को लिक्विड असेट में कैसे बदला जा सकता है। यह बिज़नस तेजी से फैल रहा है, लेकिन अभी इसका कारोबार कुल गोल्ड स्टॉक के 1.5 पर्सेंट से भी कम है। गड़बड़ी के डर से आरबीआई ने इधर भी सख्ती दिखाई है, लेकिन इस बिज़नस ने माइंडसेट पर असर डालना शुरू तो कर ही दिया है।
बदलाव धीमा है। उस डिमांड के मुकाबले तो कुछ भी नहीं, जो उछाल मारती जा रही है। और जब जवाब नहीं सूझते तो यह कल्पना ही बची रह जाती है कि एक वायरस हम पर अटैक करेगा और हम पाएंगे कि हमें सोने से नफरत होने लगी है।
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इन आंकड़ों पर गौर कीजिए। भारत में 20 हजार टन सोना घरों में या लॉकर्स में कैद है। इसकी कीमत लगभग 27 लाख करोड़ रुपए है, जो कि भारत की जीडीपी के 60 पर्सेंट के बराबर है। अकेले पिछले साल 933 टन सोना भारत आया। इतने सारे सोने का हम क्या इस्तेमाल करते हैं? सजावट या होर्डिंग के अलावा कुछ नहीं। कुल गोल्ड स्टॉक का महज 10.5 ही आरबीआई के खजाने का हिस्सा है। अगर हम सोना नहीं खरीद रहे होते और इस पैसे को दूसरे असेट्स या इस्तेमाल पर खर्च कर रहे होते, तो क्या होता? देश की आर्थिक गतिविधियों पर 27 लाख करोड़ का सालाना इन्वेस्टमेंट बढ़ जाता। ऐनुअल कैपिटल फॉर्मेशन(कारखाने, मशीनरी और इंफ्रास्ट्रक्चर) पर जितना पैसा लगता है, उससे दोगुना हम सोने पर खर्च कर देते हैं। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर ऐसा नहीं होता तो जीडीपी की रफ्तार कई पॉइंट ऊपर होती। मुमकिन है चीन से आगे या उसके बराबर। गोल्ड के अलावा जिस भी मद में हम खर्च, इन्वेस्टमेंट या सेविंग करते हैं, वह किसी-न-किसी प्रोडक्टिव काम में जाता है। और हैरानी की बात यह है कि किसी भी घरेलू बचत के मुकाबले सोने पर हमारा खर्च छह गुने से भी ज्यादा है।
भारत दुनिया में गोल्ड का इंपोर्ट करने वाला सबसे बड़ा देश है। हमारी इंपोर्ट लिस्ट में तेल और मशीनरी के बाद इसका तीसरा नंबर है। पिछले साल हमने 33.9 अरब डॉलर का गोल्ड इंपोर्ट किया। इस साल यह 58 अरब डॉलर हो सकता है। यह हमारे कुल इंपोर्ट बिल का 12 पर्सेंट है। अब यह देखिए कि 2010-11 में हमने 479 अरब डॉलर का इंपोर्ट किया और हम ट्रेड डेफिसिट में हैं। अपने एक्सपोर्ट के मुकाबले हमारा इंपोर्ट 175 अरब डॉलर ज्यादा है। यह एक बहुत बड़ा आंकड़ा है, जिसने सरकार को होश उड़ा रखे हैं। आज भारत का एक बड़ा संकट यह डेफिसिट है। सोचिए, अगर हम दुनिया भर का सोना खरीद कर अपने घर नहीं भर रहे होते, तो यह डेफिसिट नहीं होता, भारत की फाइनैंशल हालत बेहद मजबूत होती।
इस बजट में जब गोल्ड पर ड्यूटी बढ़ाई गई, तो यही सब बातें सरकार के दिमाग में थीं। इस सख्ती का कोई असर गोल्ड से हमारे प्यार पर होगा, इसकी उम्मीद करना बेकार है। सोना महंगा हो जाएगा और वह जितना महंगा होता जाता है, उतना ही उसकी कद्र हमारे दिल में बढ़ती जाती है।
लेकिन चीजें एकदम साफ हैं। दुनिया के सबसे अमीर देश सोना नहीं खरीदते। सोने का सबसे बड़ा खरीदार दुनिया का एक सबसे गरीब देश भारत है। सोना भारत की गरीबी की एक बड़ी वजह है, क्योंकि यह उस पूंजी को हमेशा के लिए एक ऐसे असेट में दफन कर देता है, जिससे तरक्की के लाखों काम हो सकते थे। कोई भी गरीब देश ऐसी लग्ज़री अफोर्ड नहीं कर सकता। तब तो कतई नहीं, जब उसके चलते उसका विदेशी व्यापार खतरे में पड़ रहा हो और फॉरेन एक्सचेंज का खजाना खाली हुआ जा रहा हो।
अगर हम सोने से इतना प्यार नहीं करते, तो भारत की दशा कुछ और ही होती। कुछ इकनॉमिस्ट इसके लिए भारत के पिछड़ेपन को कसूरवार मानते हैं। उनका कहना है कि जब लोगों के पास बचत से दूसरे तरीके नहीं होते, तो वे सोने जैसी चीजें ही खरीदते हैं। सोने को हमेशा से बुरे वक्त में सहारे की तरह देखा गया है। लेकिन मेरा सवाल यह है कि दुनिया भर के दूसरे पिछड़े, गरीब और असुरक्षित लोगों के मुकाबले हम भारतीयों को ही क्यों इतना डर सताता है कि सोना खरीदते जाते हैं? क्या हम सबसे ज्यादा डरपोक हैं या हमें अपनी पूंजी को दांव पर लगाकर आगे बढ़ना जमता ही नहीं था? क्या भारत का भाग्यवादी मिजाज इसके पीछे था, जो आज भी बहुत नहीं बदला है?
सोने की चाहत हर सोसायटी में रही है। सोने के लिए दुनिया भर में लड़ाइयां हुई हैं, लेकिन सोने से ऐसा जानलेवा लगाव और कहीं नहीं दिखता। क्या कोई तरीका है, जो हमारी तबीयत को सुधार सकता है?
जैसे-जैसे इकॉनमी के ज्यादा डायनैमिक, ज्यादा खर्चीले, इन्वेस्टमेंट के ज्यादा मौकों और फायदे के नए हिसाब वाले बदलाव पर यकीन बढ़ेगा, सोने का सुरूर कमजोर पड़ेगा। ऐसा होना चाहिए, लेकिन परंपरा से प्यार करने वाले इस देश में बचत की पुरानी आदतें भी पुरानी पीढ़ी से नई में शिफ्ट हो रही हैं। सोना जिस तरह हमारी कल्चर पर हावी है, उसे देखते हुए ड्रमैटिक बदलाव मुश्किल है, जब तक कि ओल्डर जेनरेशन ही अपने खयालात बदलने न लगे।
इन हालात में मैं उन गोल्ड लोन कंपनियों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, जिन्होंने केरल से आकर हमें सिखाया कि सोने को लिक्विड असेट में कैसे बदला जा सकता है। यह बिज़नस तेजी से फैल रहा है, लेकिन अभी इसका कारोबार कुल गोल्ड स्टॉक के 1.5 पर्सेंट से भी कम है। गड़बड़ी के डर से आरबीआई ने इधर भी सख्ती दिखाई है, लेकिन इस बिज़नस ने माइंडसेट पर असर डालना शुरू तो कर ही दिया है।
बदलाव धीमा है। उस डिमांड के मुकाबले तो कुछ भी नहीं, जो उछाल मारती जा रही है। और जब जवाब नहीं सूझते तो यह कल्पना ही बची रह जाती है कि एक वायरस हम पर अटैक करेगा और हम पाएंगे कि हमें सोने से नफरत होने लगी है।
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